Article 7 - Rights of citizenship of certain migrants to Pakistan
1947 का बंटवारा कोई किताबी बात नहीं थी। रातों-रात लाखों लोग अपना घर, खेत, दुकान छोड़कर भागे। ट्रेनें खून से भर गईं, गांव खाली हो गए। उस वक्त सबसे बड़ा सवाल था – अब भारत का नागरिक कौन रहेगा? कौन पाकिस्तानी कहलाएगा? इसी सवाल का सबसे सख्त और साफ जवाब भारतीय संविधान के अनुच्छेद 7 में दिया गया है। यह अनुच्छेद बहुत छोटा है, लेकिन इसका असर आज भी कुछ परिवारों पर पड़ता है। आज हम इसे बिल्कुल घर की भाषा में समझेंगे – न ज्यादा कानूनी शब्द, न उलझन। कानून के स्टूडेंट्स और वकीलों के लिए जरूरी पॉइंट्स भी डालेंगे, लेकिन भाषा ऐसी रखेंगे कि दादी-नानी भी समझ जाएं।
अनुच्छेद 7 असल में क्या कहता है? (पूरा पाठ सरल भाषा में)
संविधान का मूल पाठ यह है – अनुच्छेद 5 और 6 में कुछ भी लिखा हो, उससे फर्क नहीं पड़ता। अगर कोई शख्स 1 मार्च 1947 के बाद भारत से उस इलाके में चला गया जो अब पाकिस्तान है, तो उसे भारत का नागरिक नहीं माना जाएगा। लेकिन अगर वही शख्स बाद में पुनर्वास या स्थायी वापसी का सरकारी परमिट लेकर भारत लौट आया, तो उस पर यह नियम नहीं लागू होगा। उसे ऐसा मान लिया जाएगा जैसे वह 19 जुलाई 1948 के बाद भारत आया हो और अनुच्छेद 6(ख) के तहत नागरिकता मिल सकती है। यानी दो ही बातें हैं – पाकिस्तान चले गए तो नागरिकता गई, परमिट लेकर लौट आए तो नागरिकता बच सकती है।
दो खास तारीखें – ये क्यों चुनी गईं?
1 मार्च 1947 की तारीख बंटवारे से पूरे 5 महीने पहले की है। उस वक्त से ही लोग डर के मारे पाकिस्तान भागने लगे थे। संविधान बनाने वालों ने सोचा कि सिर्फ 15 अगस्त 1947 के बाद जाने वालों को ही नहीं पकड़ना, बल्कि उस डर से पहले से जाने वालों को भी इस नियम में लाना है। और 19 जुलाई 1948 की तारीख इसलिए चुनी गई क्योंकि जो लोग परमिट लेकर लौटे, उन्हें “इस तारीख के बाद भारत आए” मान लिया जाता है। इससे वे अनुच्छेद 6(ख) के तहत आसानी से नागरिक बन जाते हैं। ये तारीखें मनमानी नहीं, बहुत सोच-समझकर चुनी गई थीं।
असल जिंदगी के 5 सच्चे उदाहरण (कोर्ट के फैसलों से)
पहला उदाहरण कुलथिल मामू बनाम केरल राज्य का है। कोझिकोड में पैदा हुआ एक लड़का अबूबाकर सिर्फ 12 साल की उम्र में 1948 में पाकिस्तान चला गया। बाद में पाकिस्तानी पासपोर्ट पर भारत आता-जाता रहा। 1964 में बिना वैध कागज के पकड़ा गया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि प्रवासन का मतलब सिर्फ जाना नहीं, वहाँ बसने का इरादा भी होना चाहिए। पाकिस्तानी पासपोर्ट ही इरादे का सबूत था, इसलिए उसकी नागरिकता चली गई।
दूसरा केस एक औरत का है जो जुलाई 1948 में पति को भारत में छोड़कर इलाज के बहाने कराची गई। उसके परमिट में साफ लिखा था कि वह पाकिस्तानी नागरिक है। दिसंबर में लौटी, फिर अप्रैल 1949 में वापस पाकिस्तान चली गई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पति भारत में है तो क्या हुआ, औरत ने खुद पाकिस्तान चुन लिया। परिवार का रिश्ता कोई छूट नहीं देता। नागरिकता खत्म हो गई।
तीसरा उदाहरण खुशी वाला है। एक औरत फातिमा 1947 में पाकिस्तान चली गई। 1953 में पति की मौत के बाद बच्चों के साथ भारत लौटना चाहा। उसने सरकार से स्थायी वापसी का परमिट लिया और लौट आई। परमिट की वजह से उसे और उसके बच्चों को भारतीय नागरिक मान लिया गया। आज उसकी चौथी पीढ़ी भारत में खुशी-खुशी रह रही है।
चौथा उदाहरण दो सगे भाइयों का है। एक भाई लाहौर चला गया और कभी लौटा नहीं। दूसरा भाई अमृतसर में ही रुका। पहले भाई के बच्चे-पोते आज पाकिस्तानी हैं, दूसरे भाई के बच्चे भारतीय। एक ही खून, दो अलग देश। बंटवारे ने कितने परिवार ऐसे बाँट दिए।
पाँचवाँ केस फिरोज मेहरुद्दीन का है। पाकिस्तान गए, फिर बिना परमिट के लौट आए। बोले कि मेरा दिल तो भारत में ही था। बॉम्बे हाईकोर्ट ने कहा कि दिल की बात मुँह से बोलने से नहीं चलेगी, वैध परमिट दिखाओ। परमिट नहीं था, इसलिए नागरिकता नहीं मिली।
संविधान सभा में क्या तूफान उठा था?
10 से 12 अगस्त 1949 को डॉ. अम्बेडकर ने यह अनुच्छेद पेश किया। कुछ सदस्य बहुत नाराज हुए। वे बोले कि ये लोग अपनी मर्जी से पाकिस्तान गए, निष्ठा बदल ली, अब परमिट देकर आसानी से वापस ला रहे हो? इनके साथ तो विदेशी जैसा व्यवहार करो। डॉ. अम्बेडकर ने बहुत शांत स्वर में जवाब दिया कि हमने इनसे वादा किया था कि जो वापस आना चाहेंगे, उन्हें लिया जाएगा। वादे से मुकरना घोर अन्याय होगा। परमिट ऐसे ही नहीं दिए जाएँगे, पूरी जाँच होगी। एक सदस्य ने पूछा कि छोड़ी हुई संपत्ति वापस मिलेगी? जवाब आया कि नागरिकता और संपत्ति अलग-अलग चीजें हैं। अंत में बिना एक शब्द बदले अनुच्छेद पास हो गया।
अनुच्छेद 6 और 7 में इतना फर्क क्यों?
अनुच्छेद 6 और 7 एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, लेकिन दोनों का स्वभाव बिल्कुल अलग है। अनुच्छेद 6 में पाकिस्तान से भारत आने वालों को शरणार्थी माना गया। जैसे कोई मुसीबत से भागकर हमारे पास आया हो, उसका स्वागत है, उसे आसानी से नागरिकता दे दो, क्योंकि उसने भारत चुना। इसमें सहानुभूति ज्यादा थी। लेकिन अनुच्छेद 7 में भारत से पाकिस्तान जाने वालों को देखने का नजरिया अलग था। माना गया कि इन्होंने अपना देश छोड़ा, निष्ठा बदल ली, इसलिए पहले नागरिकता छीन लो। अगर वापस आना है तो सिर्फ सरकारी परमिट से ही आओ। इसमें सतर्कता ज्यादा थी, सहानुभूति कम। यही वजह है कि एक तरफ रास्ता आसान रखा, दूसरी तरफ सख्त। संविधान बनाने वालों ने सोचा कि जो भारत को चुनकर आए, उसे गले लगाओ, जो भारत छोड़कर गए, उसके साथ सावधानी बरतो।
आज भी यह अनुच्छेद क्यों जिंदा है?
पुराने बंटवारे के केस आज भी कभी-कभी पासपोर्ट, प्रॉपर्टी या वोटर लिस्ट बनवाते वक्त सामने आ जाते हैं। CAA-NRC की बहस में लोग यही कहते हैं कि देखो, बंटवारे में भी परमिट सिस्टम था। यह अनुच्छेद हमें सिखाता है कि कानून में मानवीयता भी होनी चाहिए, लेकिन देश की सुरक्षा से कभी समझौता नहीं करना चाहिए।
आखिरी बात
अनुच्छेद 7 सिर्फ तीन-चार लाइन का है, लेकिन उसमें पूरा बंटवारा समाया है – दर्द, मजबूरी, उम्मीद और नई शुरुआत। यह बताता है कि जब देश नया-नया बना था, तब हमारे संविधान बनाने वालों ने कितनी दूर की सोची थी। नागरिकता कागज का टुकड़ा नहीं, दिल का रिश्ता है। जिसने दिल से भारत चुना, उसे जगह मिली। जिसने छोड़ा, उसे भी वापसी का रास्ता दिखाया – लेकिन सही और सुरक्षित तरीके से।
अगर आपके परिवार में भी बंटवारे की कोई कहानी है या कागजात का कोई सवाल है, तो कमेंट कीजिए। मैं आसान भाषा में समझाने की पूरी कोशिश करूँगा।
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