भारतीय संविधान की प्रस्तावना: अर्थ, इतिहास और महत्व
भारतीय संविधान की प्रस्तावना (Preamble) कोई साधारण शुरुआती पंक्ति नहीं है। यह पूरे संविधान का दिल है। जैसे कोई किताब अपने पहले पेज से ही पाठक को बांध लेती है, वैसे ही प्रस्तावना देश के सपनों को सामने रखती है। एन.ए. पालकीवाला ने इसे “संविधान का पहचान पत्र” कहा था। के.एम. मुंशी ने “राजनीतिक जन्मकुंडली” बताया।
प्रस्तावना बताती है कि भारत कैसा बनेगा। एक संप्रभु, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य। हर नागरिक को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय मिलेगा। विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता होगी। सभी को स्थिति और अवसर की समानता मिलेगी। और सबमें बंधुत्व बढ़ेगा जो व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता-अखंडता सुनिश्चित करे।
यह विचार 13 दिसंबर 1946 को जवाहरलाल नेहरू के उद्देश्य संकल्प से निकला। 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा ने इसे स्वीकार किया। 26 नवंबर 1949 को अंतिम रूप दिया। और 26 जनवरी 1950 से लागू हुआ। 1976 में 42वें संशोधन से “समाजवादी” और “पंथनिरपेक्ष” शब्द जोड़े गए। “राष्ट्र की एकता” को “एकता और अखंडता” बनाया।
आम आदमी के लिए यह रोज़ की ज़िंदगी में काम आती है। मनरेगा से गांव के मजदूर को काम मिलता है – यह समाजवादी हिस्सा है। आरक्षण से दलित बच्चा कॉलेज जाता है – यह सामाजिक न्याय है। प्रस्तावना जीवंत दस्तावेज है। नीतियां बनाती है, अधिकार बचाती है। (198 शब्द)
प्रस्तावना का पूरा पाठ
प्रस्तावना संविधान का कोई अनुच्छेद नहीं है। यह शुरुआत है। मूल अंग्रेजी में अपनाई गई, लेकिन हिंदी में समझें:
हम, भारत के लोग, भारत को एक संप्रभु समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर, अपने संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 को एतद्द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
और अपने सभी नागरिकों को:
- न्याय – सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक;
- स्वतंत्रता – विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की;
- समानता – स्थिति और अवसर की;
- और उन सबमें बंधुत्व बढ़ाने के लिए, जो व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित करे।
यह पाठ “हम भारत के लोग” से शुरू होता है। यानी संविधान राजा या विदेशी से नहीं, जनता से आता है। यही लोकतंत्र की जड़ है। मूल पाठ में
“WE, THE PEOPLE OF INDIA... do HEREBY ADOPT, ENACT AND GIVE TO OURSELVES THIS CONSTITUTION”
लिखा है। यह अमेरो: यह जनता की सर्वोच्चता का प्रमाण है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
प्रस्तावना की कहानी स्वतंत्रता संग्राम से शुरू होती है। ब्रिटिश राज में गांधी, नेहरू, अंबेडकर सबने सपना देखा – ऐसा भारत जहां सब बराबर हों। 1946 में संविधान सभा बनी। नेहरू ने उद्देश्य संकल्प पेश किया। यही प्रस्तावना का बीज था। नेहरू ने कहा था, “This Resolution... is something more than a resolution. It is a declaration, a pledge, a vow.” यह वादा था – न्याय और स्वतंत्रता का।
संविधान सभा में 17 अक्टूबर 1949 को प्रस्तावना पर बहस हुई। कई सदस्यों ने बदलाव सुझाए। एक ने कहा – भारत का नाम रखें “भारतीय समाजवादी गणराज्य संघ” जैसे सोवियत संघ। लेकिन सभा ने मना किया। कारण? आर्थिक नीति में लचीलापन चाहिए था। समाजवादी सिद्धांत नीति निदेशकों में डाले गए, प्रस्तावना में नहीं।
दूसरा सुझाव – “ईश्वर के नाम से” शुरू करें। हरि विष्णु कामथ ने कहा। लेकिन 68 सदस्यों ने खिलाफ वोट दिया, 41 ने पक्ष में। कारण? भारत धर्मनिरपेक्ष रहेगा। किसी धर्म को थोपा नहीं जाएगा। कामथ ने निराश होकर कहा – “यह हमारे इतिहास में एक काला दिन है। ईश्वर भारत को बचाए।”
तीसरा प्रस्ताव – गांधीजी का नाम जोड़ें। ब्रजेश्वर प्रसाद ने विरोध किया। उनका तर्क – यह संविधान अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट और भारत सरकार अधिनियम 1935 पर आधारित है, गांधीवादी नहीं। इसे “rotten constitution” कहा। गांधी का नाम घसीटना गलत।
सभी प्रस्ताव खारिज हुए। ड्राफ्टिंग कमेटी का पाठ अपनाया गया। यह दुर्लभ मौका था जब “ईश्वर” पर वोट पड़ा। मूल पेज को चित्रकार व्यौहार राममनोहर सिन्हा ने सजाया। मोर, हाथी, रामायण-महाभारत के चित्र। यह कलात्मक और ऐतिहासिक है।
डॉ. बी.आर. अंबेडकर कमेटी के अध्यक्ष थे। उन्होंने कहा, “स्वतंत्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता... बंधुत्व के बिना, स्वतंत्रता और समानता को सहज रूप से स्थापित नहीं किया जा सकता।” यह त्रिमूर्ति प्रस्तावना की आत्मा बनी।
मुख्य प्रावधानों का सरल विश्लेषण
प्रस्तावना दो हिस्सों में बंटी है। पहला – भारत कैसा देश बनेगा। दूसरा – नागरिकों को क्या मिलेगा।
पहला हिस्सा बताता है – संप्रभु। कोई बाहरी ताकत हस्तक्षेप नहीं कर सकती। विदेश नीति खुद बनाते हैं। समाजवादी – अमीर-गरीब का फर्क कम। सार्वजनिक क्षेत्र मजबूत। पंथनिरपेक्ष – राज्य का कोई धर्म नहीं। सब बराबर। लोकतांत्रिक – जनता चुनती है सरकार। गणराज्य – राष्ट्रपति चुना जाता है, राजा नहीं।
उदाहरण: मनरेगा। गांव के मजदूर को 100 दिन का काम। ₹250 रोज। यह समाजवादी क्लॉज का असर है। गरीब को रोजगार, गरिमा।
दूसरा हिस्सा नागरिकों का हक है। न्याय तीन तरह का – सामाजिक (जाति-लिंग भेद नहीं), आर्थिक (धन बराबर बंटे), राजनीतिक (वोट बराबर)। स्वतंत्रता – बोलने, सोचने, धर्म मानने की आजादी। समानता – कोई विशेषाधिकार नहीं। सबको मौका। बंधुत्व – भाईचारा। व्यक्ति की गरिमा, राष्ट्र की एकता।
उदाहरण: आरक्षण। एक दलित लड़की सरकारी कॉलेज में दाखिला लेती है। पहले नामुमकिन था। यह सामाजिक न्याय और समानता का उदाहरण है।
1976 में 42वें संशोधन से “एकता और अखंडता” जोड़ा। उदाहरण: कश्मीर में आतंकवाद। सरकार कहती है – राष्ट्र की अखंडता। अनुच्छेद 370 हटाना इसी से जुड़ा।
महत्वपूर्ण सर्वोच्च न्यायालय केस लॉ
सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तावना को कानूनी ताकत दी। पहले कमजोर मानी जाती थी। अब अटूट।
- 1960 में बेरुबारी यूनियन केस। भारत-पाकिस्तान सीमा पर बेरुबारी इलाका। पाकिस्तान ने दावा किया। भारत ने प्रस्तावना का हवाला दिया। कोर्ट ने कहा – प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं। सिर्फ व्याख्या में मदद कर सकती है। शुरुआत में कमजोर स्थिति।
- 1973 में केशवानंद भारती केस। केरल के मठाधीश केशवानंद भारती ने जमीन सुधार कानून को चुनौती दी। इंदिरा सरकार ने कई संशोधन किए। कोर्ट ने कहा – नहीं। प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है। मूल संरचना सिद्धांत दिया। इसमें लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता, संघवाद शामिल। संसद इसे नहीं छू सकती। जस्टिस खन्ना ने लिखा, “The basic structure... cannot be damaged or destroyed.” प्रस्तावना को अटूट बनाया।
- 1994 में एस.आर. बोम्मई केस। कर्नाटक में कांग्रेस सरकार गिरी। केंद्र ने राष्ट्रपति शासन लगाया। बोम्मई ने चुनौती दी। कोर्ट ने कहा – धर्मनिरपेक्षता मूल संरचना का हिस्सा है। सरकारें धर्म के नाम पर नहीं गिराई जा सकतीं।
- 1995 में एलआईसी ऑफ इंडिया केस। बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण। कोर्ट ने पुष्टि की – प्रस्तावना अभिन्न अंग है
- 1980 में मिनर्वा मिल्स केस। 42वें संशोधन में मौलिक अधिकारों को नीति निदेशकों से कमजोर किया। कोर्ट ने कहा – दोनों में संतुलन जरूरी। प्रस्तावना मदद करती है।
तुलनात्मक अध्ययन
अमेरिका का संविधान भी “We the People” से शुरू होता है। लेकिन समाजवादी या पंथनिरपेक्ष नहीं। ब्रिटेन में लिखित प्रस्तावना ही नहीं। परंपराएं हैं। कनाडा में “शांति, व्यवस्था, अच्छी सरकार” है। भारत ज्यादा सामाजिक और समावेशी है।
केरल में मुफ्त स्वास्थ्य, शिक्षा – समाजवादी। यूपी में बेटी बचाओ, पढ़ाओ – समानता। तमिलनाडु में मिड-डे मील – सामाजिक न्याय। हर राज्य प्रस्तावना से प्रेरित नीतियां बनाता है।
आलोचना और सुधार के सुझाव
प्रस्तावना में कमियां भी हैं। “समाजवादी” शब्द अस्पष्ट है। आज पूंजीवाद बढ़ रहा है। अमीर-गरीब फर्क बढ़ा। “पंथनिरपेक्ष” पर राजनीति होती है। मंदिर-मस्जिद विवाद। बंधुत्व कम है। जातिवाद, क्षेत्रवाद ज्यादा।
सुधार के लिए कानून बनें जो “समाजवादी” को स्पष्ट करें। जैसे न्यूनतम आय गारंटी। स्कूलों में प्रस्तावना अनिवार्य पढ़ाई। संसद संशोधन पर सुप्रीम कोर्ट की पूर्व मंजूरी। बंधुत्व के लिए राष्ट्रीय एकता आयोग।
सामान्य नागरिकों के लिए सरल उदाहरण
- पुलिस बिना वजह रोके तो आप कह सकते हैं – मेरी स्वतंत्रता का हक है। अनुच्छेद 21 से जुड़ा। प्रस्तावना मदद करती है। नौकरी में भेदभाव हो तो महिला प्रमोशन मांगे। समानता का हक। कोर्ट जाएं।
- धार्मिक झगड़ा हो तो पड़ोसी मस्जिद के लाउडस्पीकर पर लड़ाई न करें। पंथनिरपेक्षता कहती – सबको अधिकार, लेकिन सार्वजनिक शांति जरूरी।
- गरीब बच्चे को स्कूल भेजें। RTE कानून से मुफ्त शिक्षा। सामाजिक न्याय का उदाहरण।
- 18 साल का लड़का पहली बार वोट डाले। लोकतांत्रिक गणराज्य की ताकत।
निष्कर्ष
प्रस्तावना सिर्फ कागज की स्याही नहीं है। यह भारत का दिल है। नेहरू का सपना, अंबेडकर का दर्शन, कोर्ट की रक्षा – सब यहीं। मनरेगा से मजदूर को काम, आरक्षण से दलित को मौका, RTE से बच्चे को स्कूल – सब इसी से।
यह जीवंत दस्तावेज है। हर नीति का पैमाना। हर अधिकार का स्रोत। “WE, THE PEOPLE” कहकर जनता ने खुद को संविधान दिया। आज भी यही ताकत है। जब सरकार भटके, प्रस्तावना रास्ता दिखाती है। जब समाज बंटे, बंधुत्व जोड़ता है।
यह वादा है – न्याय का, स्वतंत्रता का, समानता का। यह चेतावनी है – इन्हें कमजोर मत करो। यह प्रेरणा है – बेहतर भारत बनाओ।
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